क्षैतिज समयरेखा को समझना थोड़ा आसान है, क्योंकि इसमें बहुत अधिक तत्त्वज्ञान की आवश्यकता नहीं संकेतक केवल अतीत को दिखाता है है। मूल तर्क यही है कि सभी वस्तुएँ जिनका आरम्भ हुआ, के कारकों का भी होना आवश्यक है। ब्रह्माण्ड का आरम्भ हुआ था; इसलिए, ब्रह्माण्ड का भी एक कारक था। वह कारक, पूरे ब्रह्माण्ड से बाहर हो होते हुए, संकेतक केवल अतीत को दिखाता है परमेश्‍वर है। हो सकता है कि कोई यह कहे कि कुछ वस्तुओं अन्य वस्तुओं के कारण उत्पन्न हुई हैं, परन्तु यह बात समस्या का समाधान नहीं करता है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि इन अन्य वस्तुओं के भी कारक होने चाहिए, और यह बात इससे और आगे नहीं जा सकता है। आइए संकेतक केवल अतीत को दिखाता है एक सरल उदाहरण : वृक्षों के ऊपर विचार करें। सभी वृक्ष किसी बिन्दु पर अस्तित्व में आए (क्योंकि वे पहले से ही अस्तित्व में नहीं थे)। प्रत्येक वृक्ष अपने आरम्भ में किसी दूसरे संकेतक केवल अतीत को दिखाता है वृक्ष का एक बीज था (जो वृक्ष का "कारक" है)। परन्तु प्रत्येक बीज का आरम्भ किसी दूसरे वृक्ष (कारक) में था। वृक्ष-बीज-वृक्ष-बीज की एक अनन्त श्रृंखला नहीं हो सकती है, क्योंकि कोई श्रृंखला अनन्त नहीं है — यह ऐसी ही चलती नहीं रह सकती है। अपनी परिभाषा के अनुसार सभी श्रृंखला परिमित (सीमित) हैं। अनन्त सँख्या जैसी कोई बात नहीं है, क्योंकि यहाँ तक कि सँख्या श्रृँखला भी सीमित है (यद्यपि, आप सदैव इसमें एक और जोड़ सकते हैं, आपके पास सदैव सीमित संख्या ही होती हैं)। यदि कोई अन्त है, तो यह अनन्त नहीं है। सभी श्रृंखलाओं के दो अन्त होते हैं, वास्तव में — एक अन्त और एक आरम्भ (एक छड़ी की कल्पना करने की कोशिश करें!)। परन्तु, यदि कोई भी पहला कारक नहीं था, तब तो कारकों की श्रृंखला कभी आरम्भ हुई ही नहीं। संकेतक केवल अतीत को दिखाता है इसलिए, कम से कम आरम्भ में एक प्रथम कारक हुआ था — एक ऐसा कारक जिसका कोई आरम्भ नहीं था। यह पहला कारक परमेश्‍वर है।

परमेश्‍वर के अस्तित्व के लिए ब्रह्माण्ड सम्बन्धित तर्क संकेतक केवल अतीत को दिखाता है क्या है?

कोसमोलोजिकल अर्थात् ब्रह्माण्ड सम्बन्धित तर्क हमारे चारों ओर के संसार (ब्रह्माण्ड) का अवलोकन करके परमेश्‍वर संकेतक केवल अतीत को दिखाता है के अस्तित्व को प्रमाणित करने का प्रयास करता है। यह वास्तविकता में सबसे अधिक स्पष्टत : विद्यमान वस्तुओं से आरम्भ होता है। तत्पश्चात् यह तर्क देता है इन वस्तुओं के अस्तित्व का कारण "परमेश्‍वर-जैसे" एक तत्व का होना है। इस तरह के तर्क प्लेटो अर्थात् अफलातून जैसे दार्शनिकों के समय की ओर से आते हुए मिलते हैं और तब से इसे उल्लेखनीय दार्शनिकों और धर्मवैज्ञानिकों के द्वारा उपयोग किया गया है। 20वीं शताब्दी में विज्ञान ने अन्ततः धर्मशास्त्रियों के संकेतक केवल अतीत को दिखाता है साथ अपने सम्बन्ध को तब जोड़ा जब यह पुष्टि हो गई कि ब्रह्माण्ड का निश्चित ही एक आरम्भ था। इसलिए, आज, ब्रह्माण्ड सम्बन्धित तर्क गैर-दार्शनिकों के लिए बहुत अधिक सामर्थी हो गए हैं। इन तर्कों में दो मूल रूप पाए जाते हैं और इनके बारे में सोचने के लिए सबसे आसान तरीका "ऊर्ध्वाधर" और "क्षैतिज" शब्दों में हो सकता है। ये नाम उस दिशा का संकेत देते हैं, जिसके कारण ये आए हैं। ऊर्ध्वाधर रूप में यह तर्क दिया जाता है कि प्रत्येक वस्तु की उत्पत्ति अभी हो रही संकेतक केवल अतीत को दिखाता है संकेतक केवल अतीत को दिखाता है संकेतक केवल अतीत को दिखाता है है (ब्रह्माण्ड से लेकर परमेश्‍वर की ओर तक एक तीर की जैसी समयरेखा की कल्पना करो)। क्षैतिज रूप से यह दर्शाता है कि सृष्टि के पास आरम्भ संकेतक केवल अतीत को दिखाता है से ही अपने रचे जाने के लिए एक कारक का होना अवश्य है (अतीत में समय के आरम्भ की ओर संकेत करते हुए एक तीर के द्वारा संकेत करती हुई एक समयरेखा की कल्पना करें।

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